मुंशी शालिग्राम बनारस के पुराने रईस थे।
जीवन-वृति वकालत थी और पैतृक सम्पत्ति भी अधिक थी। दशाश्वमेध घाट पर उनका
वैभवान्वित गृह आकाश को स्पर्श करता था। उदार ऐसे कि पचीस-तीस हजार की वाषिर्क आय
भी व्यय को पूरी न होती थी। साधु-ब्राहमणों के बड़े श्रद्वावान थे। वे जो कुछ
कमाते, वह स्वयं
ब्रह्रमभोज और साधुओं के भंडारे एवं सत्यकार्य में व्यय हो जाता। नगर में कोई
साधु-महात्मा आ जाये, वह मुंशी जी का
अतिथि। संस्कृत के ऐसे विद्वान कि बड़े-बड़े पंडित उनका लोहा मानते थे वेदान्तीय
सिद्वान्तों के वे अनुयायी थे। उनके चित्त की प्रवृति वैराग्य की ओर थी।
मुंशीजी को स्वभावत: बच्चों से बहुत प्रेम
था। मुहल्ले-भर के बच्चे उनके प्रेम-वारि से अभिसिंचित होते रहते थे। जब वे घर से
निकलते थे तब बालाकों का एक दल उसके साथ होता था। एक दिन कोई पाषाण-हृदय माता अपने
बच्वे को मार थी। लड़का बिलख-बिलखकर रो रहा था। मुंशी जी से न रहा गया। दौड़े, बच्चे को गोद में
उठा लिया और स्त्री के सम्मुख अपना सिर
झुक दिया। स्त्री ने उस दिन से अपने लड़के को न मारने की शपथ खा ली जो
मनुष्य दूसरो के बालकों का ऐसा स्नेही हो, वह अपने बालक को कितना प्यार करेगा, सो अनुमान से
बाहर है। जब से पुत्र पैदा हुआ, मुंशी जी संसार के सब कार्यो से अलग हो गये। कहीं वे लड़के
को हिंडोल में झुला रहे हैं और प्रसन्न हो रहे हैं। कहीं वे उसे एक सुन्दर
सैरगाड़ी में बैठाकर स्वयं खींच रहे हैं। एक क्षण के लिए भी उसे अपने पास से दूर
नहीं करते थे। वे बच्चे के स्नेह में अपने को भूल गये थे।
सुवामा ने लड़के का नाम प्रतापचन्द्र रखा
था। जैसा नाम था वैसे ही उसमें गुण भी थे। वह अत्यन्त प्रतिभाशाली और रुपवान था।
जब वह बातें करता, सुनने वाले मुग्ध
हो जाते। भव्य ललाट दमक-दमक करता था। अंग ऐसे पुष्ट कि द्विगुण डीलवाले लड़कों को
भी वह कुछ न समझता था। इस अल्प आयु ही में उसका मुख-मण्डल ऐसा दिव्य और ज्ञानमय था
कि यदि वह अचानक किसी अपरिचित मनुष्य के सामने आकर खड़ा हो जाता तो वह विस्मय से
ताकने लगता था।
इस प्रकार हंसते-खेलते छ: वर्ष व्यतीत हो
गये। आनंद के दिन पवन की भांति सन्न-से निकल जाते हैं और पता भी नहीं चलता। वे
दुर्भाग्य के दिन और विपत्ति की रातें हैं, जो काटे नहीं कटतीं। प्रताप को पैदा हुए अभी कितने दिन हुए।
बधाई की मनोहारिणी ध्वनि कानों मे गूंज रही थी छठी वर्षगांठ आ पहुंची। छठे वर्ष का
अंत दुर्दिनों का श्रीगणेश था। मुंशी शालिग्राम का सांसारिक सम्बन्ध केवल दिखावटी
था। वह निष्काम और निस्सम्बद्व जीवन व्यतीत करते थे। यद्यपि प्रकट वह सामान्य
संसारी मनुष्यों की भांति संसार के क्लेशों से क्लेशित और सुखों से हर्षित
दृष्टिगोचर होते थे, तथापि उनका मन
सर्वथा उस महान और आनन्दपूर्व शांति का सुख-भोग करता था, जिस पर दु:ख के
झोंकों और सुख की थपकियों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
माघ का महीना था। प्रयाग में कुम्भ का मेला
लगा हुआ था। रेलगाड़ियों में यात्री रुई की भांति भर-भरकर प्रयाग पहुंचाये जाते
थे। अस्सी-अस्सी बरस के वृद्व-जिनके लिए वर्षो से उठना कठिन हो रहा था- लंगड़ाते, लाठियां टेकते
मंजिल तै करके प्रयागराज को जा रहे थे। बड़े-बड़े साधु-महात्मा, जिनके दर्शनो की
इच्छा लोगों को हिमालय की अंधेरी गुफाओं में खींच ले जाती थी, उस समय गंगाजी की
पवित्र तरंगों से गले मिलने के लिए आये हुए थे। मुंशी शालिग्राम का भी मन ललचाया।
सुवाम से बोले- कल स्नान है।
सुवामा - सारा मुहल्ला सूना हो गया। कोई
मनुष्य नहीं दीखता।
मुंशी - तुम चलना स्वीकार नहीं करती, नहीं तो बड़ा
आनंद होता। ऐसा मेला तुमने कभी नहीं देखा होगा।
सुवामा - ऐसे मेला से मेरा जी घबराता है।
मुंशी - मेरा जी तो नहीं मानता। जब से सुना
कि स्वामी परमानन्द जी आये हैं तब से उनके दर्शन के लिए चित्त उद्विग्न हो रहा है।
सुवामा पहले तो उनके जाने
पर सहमत न हुई, पर जब देखा कि यह
रोके न रुकेंगे, तब विवश होकर मान
गयी। उसी दिन मुंशी जी ग्यारह बजे रात को प्रयागराज चले गये। चलते समय उन्होंने
प्रताप के मुख का चुम्बन किया और स्त्री को प्रेम से गले लगा लिया। सुवामा ने उस
समय देखा कि उनके नेञ सजल हैं। उसका कलेजा धक से हो गया। जैसे चैत्र मास में काली
घटाओं को देखकर कृषक का हृदय कॉंपने लगता है, उसी भाती मुंशीजी ने नेत्रों का अश्रुपूर्ण देखकर सुवामा
कम्पित हुई। अश्रु की वे बूंदें वैराग्य और
त्याग का अगाघ समुद्र
थीं। देखने में वे जैसे नन्हे जल के कण थीं, पर थीं वे कितनी गंभीर और विस्तीर्ण।
उधर मुंशी जी घर के बाहर निकले और इधर
सुवामा ने एक ठंडी श्वास ली। किसी ने उसके हृदय में यह कहा कि अब तुझे अपने पति के
दर्शन न होंगे। एक दिन बीता, दो दिन बीते, चौथा दिन आया और रात हो गयी, यहा तक कि पूरा सप्ताह बीत गया, पर मुंशी जी न
आये। तब तो सुवामा को आकुलता होने लगी। तार दिये, आदमी दौड़ाये, पर कुछ पता न चला। दूसरा सप्ताह भी इसी प्रयत्न
में समाप्त हो गया। मुंशी जी के लौटने की जो कुछ आशा शेष थी, वह सब मिट्टी में
मिल गयी। मुंशी जी का अदृश्य होना उनके कुटुम्ब मात्र के लिए ही नहीं, वरन सारे नगर के
लिए एक शोकपूर्ण घटना थी। हाटों में दुकानों पर, हथाइयो में अर्थात चारों और यही वार्तालाप होता
था। जो सुनता, वही शोक करता-
क्या धनी, क्या निर्धन। यह
शौक सबको था। उसके कारण चारों और उत्साह फैला रहता था। अब एक उदासी छा गयी। जिन
गलियों से वे बालकों का झुण्ड लेकर निकलते थे, वहां अब धूल उड़ रही थी। बच्चे बराबर उनके पास आने के लिए
रोते और हठ करते थे। उन बेचारों को यह सुध कहां थी कि अब प्रमोद सभा भंग हो गयी
है। उनकी माताएं ऑंचल से मुख ढांप-ढांपकर रोतीं मानों उनका सगा प्रेमी मर गया है।
वैसे तो मुंशी जी के गुप्त हो जाने का रोना
सभी रोते थे। परन्तु सब से गाढ़े आंसू, उन आढतियों और महाजनों के नेत्रों से गिरते थे, जिनके लेने-देने
का लेखा अभी नहीं हुआ था। उन्होंने दस-बारह दिन जैसे-जैसे करके काटे, पश्चात एक-एक
करके लेखा के पत्र दिखाने लगे। किसी ब्रहृनभोज मे सौ रुपये का घी आया है और मूल्य
नहीं दिया गया। कही से दो-सौ का मैदा आया हुआ है। बजाज का सहस्रों का लेखा है।
मन्दिर बनवाते समय एक महाजन के बीस सहस्र ऋण लिया था, वह अभी वैसे ही
पड़ा हुआ है लेखा की तो यह दशा थी। सामग्री की यह दशा कि एक उत्तम गृह और
तत्सम्बन्धिनी सामग्रियों के अतिरिक्त कोई वस्त न थी, जिससे कोई बड़ी
रकम खड़ी हो सके। भू-सम्पत्ति बेचने के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय न था, जिससे धन प्राप्त
करके ऋण चुकाया जाए।
बेचारी सुवामा सिर नीचा
किए हुए चटाई पर बैठी थी और प्रतापचन्द्र अपने लकड़ी के घोड़े पर सवार आंगन में
टख-टख कर रहा था कि पण्डित मोटेराम शास्त्री - जो कुल के पुरोहित थे - मुस्कराते
हुए भीतर आये। उन्हें प्रसन्न देखकर निराश सुवामा चौंककर उठ बैठी कि शायद यह कोई
शुभ समाचार लाये हैं। उनके लिए आसन बिछा दिया और आशा-भरी दृष्टि से देखने लगी।
पण्डितजी आसान पर बैठे और सुंघनी सूंघते हुए बोले तुमने महाजनों का लेखा देखा?
सुवामा ने निराशापूर्ण शब्दों में कहा-हां, देखा तो।
मोटेराम-रकम बड़ी गहरी है। मुंशीजी ने
आगा-पीछा कुछ न सोचा, अपने यहां कुछ
हिसाब-किताब न रखा।
सुवामा-हां अब तो यह रकम गहरी है, नहीं तो इतने
रुपये क्या, एक-एक भोज में उठ
गये हैं।
मोटेराम-सब दिन समान नहीं बीतते।
सुवामा-अब तो जो ईश्वर
करेगा सो होगा, क्या कर सकती
हूं।
मोटेराम- हां ईश्वर की इच्छा तो मूल ही है, मगर तुमने भी कुछ
सोचा है ?
सुवामा-हां गांव बेच डालूंगी।
मोटेराम-राम-राम। यह क्या कहती हो ? भूमि बिक गयी, तो फिर बात क्या
रह जायेगी?
मोटेराम- भला, पृथ्वी हाथ से निकल गयी, तो तुम लोगों का
जीवन निर्वाह कैसे होगा?
सुवामा-हमारा ईश्वर मालिक है। वही बेड़ा पार
करेगा।
मोटेराम यह तो बड़े अफसोस की बात होगी कि
ऐसे उपकारी पुरुष के लड़के-बाले दु:ख भोगें।
सुवामा-ईश्वर की यही इच्छा है, तो किसी का क्या
बस?
मोटेराम-भला, मैं एक युक्ति बता दूं कि सांप भी मर जाए और
लाठी भी न टूटे।
सुवामा- हां, बतलाइए बड़ा उपकार होगा।
मोटेराम-पहले तो एक दरख्वास्त लिखवाकर
कलक्टर साहिब को दे दो
कि मालगुलारी माफ की
जाये। बाकी रुपये का बन्दोबस्त हमारे ऊपर छोड दो। हम जो चाहेंगे करेंगे, परन्तु इलाके पर
आंच ना आने पायेगी।
सुवामा-कुछ प्रकट भी तो हो, आप इतने रुपये
कहां से लायेंगी?
मोटेराम- तुम्हारे लिए रुपये की क्या
कमी है? मुंशी जी के नाम
पर बिना लिखा-पढ़ी के पचास हजार रुपये का बन्दोस्त हो जाना कोई बड़ी बात नहीं है।
सच तो यह है कि रुपया रखा हुआ है, तुम्हारे मुंह से ‘हां’
निकलने की देरी
है।
सुवामा- नगर के भद्र-पुरुषों ने एकत्र किया
होगा?
मोटेराम- हां, बात-की-बात में रुपया एकत्र हो गया। साहब का
इशारा बहुत था।
सुवामा-कर-मुक्ति के लिए प्रार्थना-पञ मुझसे
न लिखवाया जाएगा और मैं अपने स्वामी के नाम ऋण ही लेना चाहती हूं। मैं सबका एक-एक
पैसा अपने गांवों ही से चुका दूंगी।
यह कहकर सुवामा ने रुखाई से मुंह फेर लिया
और उसके पीले तथा शोकान्वित बदन पर क्रोध-सा झलकने लगा। मोटेराम ने देखा कि बात
बिगड़ना चाहती है, तो संभलकर बोले-
अच्छा, जैसे तुम्हारी
इच्छा। इसमें कोई जबरदस्ती नहीं है। मगर यदि हमने तुमको किसी प्रकार का दु:ख उठाते
देखा, तो उस दिन प्रलय
हो जायेगा। बस, इतना समझ लो।
सुवामा-तो आप क्या यह चाहते हैं कि मैं अपने
पति के नाम पर दूसरों की कृतज्ञता का भार रखूं? मैं इसी घर में जल मरुंगी, अनशन करते-करते मर जाऊंगी, पर किसी की उपकृत
न बनूंगी।
मोटेराम-छि:छि:। तुम्हारे ऊपर निहोरा कौन कर
सकता है? कैसी बात मुख से
निकालती है? ऋण लेने में कोई
लाज नहीं है। कौन रईस है जिस पर लाख दो-लाख का ऋण न हो?
सुवामा- मुझे विश्वास नहीं होता कि इस ऋण
में निहोरा है।
मोटेराम- सुवामा, तुम्हारी बुद्वि
कहां गयी? भला, सब प्रकार के
दु:ख उठा लोगी पर क्या तुम्हें इस बालक पर दया नहीं आती?
मोटेराम की यह चोट बहुत कड़ी लगी। सुवामा
सजलनयना हो गई। उसने पुत्र की ओर करुणा-भरी दृष्टि से देखा। इस बच्चे के लिए मैंने
कौन-कौन सी तपस्या नहीं की?
क्या उसके भाग्य
में दु:ख ही बदा है। जो अमोला जलवायु के प्रखर झोंकों से बचाता जाता था, जिस पर सूर्य की
प्रचण्ड किरणें न पड़ने पाती थीं, जो स्नेह-सुधा से अभी सिंचित रहता था, क्या वह आज इस
जलती हुई धूप और इस आग की लपट में मुरझायेगा? सुवामा कई मिनट तक इसी चिन्ता में बैठी रही। मोटेराम
मन-ही-मन प्रसन्न हो रहे थे कि अब सफलीभूत हुआ। इतने में सुवामा ने सिर उठाकर
कहा-जिसके पिता ने लाखों को जिलाया-खिलाया, वह दूसरों का आश्रित नहीं बन सकता। यदि पिता का धर्म उसका
सहायक होगा, तो स्वयं दस को
खिलाकर खायेगा। लड़के को बुलाते हुए ‘बेटा। तनिक यहां आओ। कल से तुम्हारी मिठाई, दूध, घी सब बन्द हो
जायेंगे। रोओगे तो नहीं?’
यह कहकर उसने
बेटे को प्यार से बैठा लिया और उसके गुलाबी गालों का पसीना पोंछकर चुम्बन कर लिया।
प्रताप- क्या कहा? कल से मिठाई बन्द
होगी? क्यों क्या हलवाई
की दुकान पर मिठाई नहीं है?
सुवामा-मिठाई तो है, पर उसका रुपया
कौन देगा?
प्रताप- हम बड़े होंगे, तो उसको बहुत-सा
रुपया देंगे। चल, टख। टख। देख मां, कैसा तेज घोड़ा
है।
सुवामा की आंखों में फिर जल भर आया। ‘हा हन्त। इस
सौन्दर्य और सुकुमारता की मूर्ति पर अभी से दरिद्रता की आपत्तियां आ जायेंगी। नहीं
नहीं, मैं स्वयं सब भोग
लूंगी। परन्तु अपने प्राण-प्यारे बच्चे के ऊपर आपत्ति की परछाहीं तक न आने दूंगी।’ माता तो यह सोच
रही थी और प्रताप अपने हठी और मुंहजोर घोड़े पर चढ़ने में पूर्ण शक्ति से लीन हो
रहा था। बच्चे मन के राजा होते हैं।
अभिप्राय यह कि मोटेराम
ने बहुत जाल फैलाया। विविध प्रकार का वाक्चातुर्य दिखलाया, परन्तु सुवामा ने
एक बार ‘नहीं करके ‘हां’ न की। उसकी इस
आत्मरक्षा का समाचार जिसने सुना, धन्य-धन्य कहा। लोगों के मन में उसकी प्रतिष्टा दूनी हो
गयी। उसने वही किया, जो ऐसे संतोषपूर्ण
और उदार-हृदय मनुष्य की स्त्री को करना उचित था।
इसके पन्द्रहवें दिन इलाका नीलामा पर चढ़ा।
पचास सहस्र रुपये प्राप्त हुए कुल ऋण चुका दिया गया। घर का अनावश्यक सामान बेच
दिया गया। मकान में भी सुवामा ने भीतर से ऊंची-ऊंची दीवारें खिंचवा कर दो अलग-अलग
खण्ड कर दिये। एक में आप रहने लगी और दूसरा भाड़े पर उठा दिया।
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