डिप्टी श्यामाचरण की धाक सारे नगर में छायी
हई थी। नगर में कोई ऐसा हाकिम न था जिसकी लोग इतनी प्रतिष्ठा करते हों। इसका कारण
कुछ तो यह था कि वे स्वभाव के मिलनसार और सहनशील थे और कुछ यह कि रिश्वत से उन्हें
बडी घृणा थी। न्याय-विचार ऐसी सूक्ष्मता से करते थे कि दस-बाहर वर्ष के भीतर
कदाचित उनके दो-ही चार फैसलों की अपील हुई होगी। अंग्रेजी का एक अक्षर न जानते थे, परन्तु
बैरस्टिरों और वकीलों को भी उनकी नैतिक पहुंच और सूक्ष्मदर्शिता पर आश्चर्य होता
था। स्वभाव में स्वाधीनता कूट-कूट भरी थी। घर और न्यायालय के अतिरिक्त किसी ने
उन्हें और कहीं आते-जाते नहीं देखा। मुशीं शालिग्राम जब तक जीवित थे, या यों कहिए कि
वर्तमान थे, तब तक कभी-कभी
चितविनोदार्थ उनके यह चले जाते थे। जब वे लप्त हो गये, डिप्टी साहब ने
घर छोडकर हिलने की शपथ कर ली। कई वर्ष हुए एक बार कलक्टर साहब को सलाम करने गये थे
खानसामा ने कहा- साहब स्नान कर रहे हैं दो घंटे तक बरामदे में एक मोढे पर बैठे
प्रतीक्षा करते रहे। तदनन्तर साहब बहादुर हाथ में एक टेनिस बैट लिये हुए निकले और
बोले-बाबू साहब, हमको खेद है कि
आपको हामारी बाट देखनी पडी। मुझे आज अवकाश नहीं है। क्लब-घर जाना है। आप फिर कभी
आवें।
यह सुनकर उन्होंने साहब बहादुर को सलाम किया
और इतनी-सी बात पर फिर किसी अंग्रेजी की भेंट को न गये। वंश, प्रतिष्ठा और
आत्म-गौरव पर उन्हें बडा अभिमान था। वे बडे ही रसिक पुरूष थे। उनकी बातें हास्य से
पूर्ण होती थीं। संध्या के समय जब वे कतिपय विशिष्ट मित्रों के साथ द्वारांगण में
बैठते, तो उनके उच्च
हास्य की गूंजती हुई प्रतिध्वनि वाटिका से सुनायी देती थी। नौकरो-चाकरों से वे
बहुत सरल व्यवहार रखते थे,
यहां तक कि उनके
संग अलाव के बेठने में भी उनको कुछ संकोच न था। परन्तु उनकी धाक ऐसी छाई हुई थी कि
उनकी इस सजनता से किसी को अनूचित लाभ उठाने का साहस न होता था। चाल-ढाल सामान्य
रखते थे। कोअ-पतलून से उन्हें घृणा थी। बटनदार ऊंची अचकयन, उस पर एक रेशमी
काम की अबा, काला श्मिला, ढीला पाजामा और
दिल्लीवाला नोकदार जूता उनकी मुख्य पोशाक थी। उनके दुहरे शरीर, गुलाबी चेहरे और
मध्यम डील पर जितनी यह पोशाक शोभा देती थी, उनकी कोट-पतलूनसे सम्भव न थी। यद्यपि उनकी धाक सारे नगर-भर
में फैली हई थी, तथापि अपने घर के
मण्डलान्तगर्त उनकी एक न चलती थी। यहां उनकी सुयोग्य अद्वांगिनी का साम्राज्य था।
वे अपने अधिकृत प्रान्त में स्वच्छन्दतापूर्वक शासन करती थी। कई वर्ष व्यतीत हुए
डिप्टी साहब ने उनकी इच्छा के विरूद्व एक महराजिन नौकर रख ली थी। महराजिन कुछ
रंगीली थी। प्रेमवती अपने पति की इस अनुचित कृति पर ऐसी रूष्ट हुई कि कई सप्ताह तक
कोपभवन में बैठी रही। निदान विवश होकर साहब ने महराजिन को विदा कर दिया। तब से
उन्हें फिर कभी गृहस्थी के व्यवहार में हस्तक्षेप करने का साहस न हुआ।
मुंशीजी के दो बेटे और एक बेटी थी। बडा लडका
साधाचरण गत वर्ष डिग्री प्राप्त करके इस समय रूडकी कालेज में पढाता था। उसका विवाह
फतहपुयर-सीकरी के एक रईस के यहां हआ था। मंझली लडकी का नाम सेवती था। उसका भी
विवाह प्रयाग के एक धनी घराने में हुआ था। छोटा लडका कमलाचरण अभी तक अविवाहित था।
प्रेमवती ने बचपन से ही लाड-प्यार करके उसे ऐसा बिगाड दिया था कि उसका मन
पढने-लिखने में तनिक भी नहीं लगता था। पन्द्रह वर्ष का हो चुका था, पर अभी तक
सीधा-सा पत्र भी न लिख सकता था। इसलिए वहां से भी वह उठा लिया गया। तब एक मास्टर
साहब नियुक्त हुए और तीन महीने रहे परन्तु इतने दिनों में कमलाचरण ने कठिनता से
तीन पाठ पढे होंगें। निदान मास्टर साहब भी विदा हो गये। तब डिप्टी साहब ने स्वयं
पढाना निश्चित किया। परन्तु एक ही सप्ताह में उन्हें कई बार कमला का सिर हिलाने की
आवश्यकता प्रतीत हुई। साक्षियों के बयान और वकीलों की सूक्ष्म आलोचनाओं के तत्व को
समझना कठिन नहीं है, जितना किसी
निरूत्साही लडके के यमन में शिक्षा-रूचित उत्पन्न करना है।
प्रेमवती ने इस मारधाड पर ऐसा उत्पात मचाया
कि अन्त में डिप्टी साहब ने भी झल्लाकर पढाना छोड दिया। कमला कुछ ऐसा रूपवान, सुकुमार और
मधुरभाषी था कि माता उसे सब लडकों से अधिक चाहती थी। इस अनुचित लाड-प्यार ने उसे
पंतंग, कबूतरबाजी और इसी
प्रकार के अन्य कुव्यसनों का प्रेमी बना दिया था। सबरे हआ और कबूतर उडाये जाने लगे, बटेरों के जोड
छूटने लगे, संध्या हई और
पंतग के लम्बे-लम्बे पेच होने लगे। कुछ दिनों में जुए का भी चस्का पड चला था।
दपर्ण, कंघी और इत्र-तेल
में तो मानों उसके प्राण ही बसते थे।
प्रेमवती एक दिन सुवामा
से मिलने गयी हुई थी। वहां उसने वृजरानी को देखा और उसी दिन से उसका जी ललचाया हआ
था कि वह बहू बनकर मेरे घर में आये, तो घर का भाग्य जाग उठे। उसने सुशीला पर अपना यह भाव प्रगट
किया। विरजन का तेरहॅवा आरम्भ हो चुका था। पति-पत्नी में विवाह के सम्बन्ध में
बातचीत हो रही थी। प्रेमवती की इच्छा पाकर दोनों फूले न समाये। एक तो परिचित
परिवार, दूसरे कलीन लडका, बूद्विमान और
शिक्षित, पैतृक सम्पति
अधिक। यदि इनमें नाता हो जाए तो क्या पूछना। चटपट रीति के अनुसार संदेश कहला भेजा।
इस प्रकार संयोग ने आज उस विषैले वृक्ष का
बीज बोया, जिसने तीन ही
वर्ष में कुल का सर्वनाश कर दिया। भविष्य हमारी दृष्टि से कैसा गुप्त रहता है ?
ज्यों ही संदेशा पहुंचा, सास, ननद और बहू में
बातें होने लगी।
बहू(चन्द्रा)-क्यों अम्मा। क्या आप इसी साल
ब्याह करेंगी ?
प्रेमवती-और क्या, तुम्हारे लालाली
के मानने की देर है।
बहू-कूछ तिलक-दहेज भी ठहरा
प्रेमवती-तिलक-दहेज ऐसी लडकियों के लिए नहीं
ठहराया जाता।
जब तुला पर लडकी लडके के बराबर नहीं ठहरती,तभी दहेज का
पासंग बनाकर उसे बराबर कर देते हैं। हमारी वृजरानी कमला से बहुत भारी है।
सेवती-कुछ दिनों घर में खूब धूमधाम रहेगी।
भाभी गीत गायेंगी। हम ढोल बजायेंगें। क्यों भाभी ?
चन्द्रा-मुझे नाचना गाना नहीं आता।
चन्द्रा का स्वर कुछ भद्दा था, जब गाती, स्वर-भंग हो जाता
था। इसलिए उसे गाने से चिढ थी।
सेवती-यह तो तुम आप ही करो। तुम्हारे गाने
की तो संसार में धूम है।
चन्द्रा जल गयी, तीखी होकर
बोली-जिसे नाच-गाकर दूसरों को लुभाना हो, वह नाचना-गाना सीखे।
सेवती-तुम तो तनिक-सी हंसी में रूठ जाती हो।
जरा वह गीत गाओं तो—तुम तो श्याम बडे
बेखबर हो’। इस समय सुनने
को बहुत जी चाहता है। महीनों से तुम्हारा गाना नहीं सुना।
चन्द्रा-तुम्ही गाओ, कोयल की तरह
कूकती हो।
सेवती-लो, अब तुम्हारी यही
चाल अच्छी नहीं लगती। मेरी अच्छी भाभी, तनिक गाओं।
चन्द्रमा-मैं इस समय न गाऊंगी। क्यों मुझे
कोई डोमनी समझ लिया है ?
सेवती-मैं तो बिन गीत सुने आज तुम्हारा पीछा
न छोडूंगी।
सेवती का स्वर परम सुरीला और चिताकर्षक था।
रूप और आकृति भी मनोहर, कुन्दन वर्ण और
रसीली आंखें। प्याली रंग की साडी उस पर खूब खिल रही थी। वह आप-ही-आप गुनगुनाने
लगी:
तुम तो श्याम बडे बेखबर हो...तुम तो श्याम।
आप तो श्याम पीयो दूध के कुल्हड, मेरी तो पानी पै
गुजर-
पानी पै गुजर हो। तुम तो श्याम...
दूध के कुल्हड पर वह हंस पडी। प्रेमवती भी
मुस्करायी, परन्तु चन्द्रा
रूष्ट हो गयी। बोली –बिना हंसी की
हंसी हमें नहीं आती। इसमें हंसने की क्या बात है ?
सेवती-आओ, हम तुम मिलकर गायें।
चन्द्रा-कोयल और कौए का क्या साथ ?
सेती-क्रोध तो तुम्हारी नाक पर रहता है।
चन्द्रा-तो हमें क्यों छेडती हो ? हमें गाना नहीं
आता, तो कोई तुमसे
निन्दा करने तो नहीं जाता।
‘कोई’ का संकेत राधाचरण
की ओर था। चन्द्रा में चाहे और गुण न हों, परन्तु पति की सेवा वह तन-मन से करती थी। उसका तनिक भी सिर
धमका कि इसके प्राण निकला। उनको घर आने में तनिक देर हुई कि वह व्याकुल होने लगी।
जब से वे रूडकी चले गये, तब से चन्द्रा
यका हॅसना-बोलना सब छूट गया था। उसका विनोद उनके संग चला गया था। इन्हीं कारणों से
राधाचरण को स्त्री का वशीभूत बना दिया था। प्रेम, रूप-गुण, आदि सब त्रुटियों का पूरक है।
सेवती-निन्दा क्यों करेगा, ‘कोई’ तो तन-मन से तुम
पर रीझा हुआ है।
चन्द्रा-इधर कई दिनों से चिट्ठी नहीं आयी।
सेवती-तीन-चार दिन हुए होंगे।
चन्द्रा-तुमसे तो हाथ-पैर
जोड़ कर हार गयी। तुम लिखती ही नहीं।
सेवती-अब वे ही बातें प्रतिदिन कौन लिखे, कोई नयी बात हो
तो लिखने को जी भी चाहे।
चन्द्रा-आज विवाह के समाचार लिख देना। लाऊं
कलम-दवात ?
सेवती-परन्तु एक शर्त पर लिखूंगी।
चन्द्रा-बताओं।
सेवती-तुम्हें श्यामवाला गीत गाना पड़ेगा।
चन्द्रा-अच्छा गा दूंगी। हॅसने को जी चाहता
है न ?हॅस लेना।
सेवती-पहले गा दो तो लिखूं।
चन्द्रा-न लिखोगी। फिर बातें बनाने लगोगी।
सेवती- तुम्हारी शपथ, लिख दूंगी, गाओ।
चन्द्रा गाने लगी-
तुम तो श्याम बड़े बेखबर हो।
तुम तो श्याम पीयो दूध के कूल्हड़, मेरी तो पानी पै
गुजर
पानी पे गुजर हो। तुम तो श्याम बडे
बेखबर हो।
अन्तिम शब्द कुछ ऐसे बेसुरे निकले कि हॅसी
को रोकना कठिन हो गया। सेवती ने बहुत रोका पर न रुक सकी। हॅसते-हॅसते पेट में बल
पड़ गया। चन्द्रा ने दूसरा पद गाया:
आप तो श्याम रक्खो दो-दो लुगइयॉ,
मेरी तो आपी पै नजर आपी पै नजर हो।
तुम तो श्याम....
‘लुगइयां’ पर सेवती
हॅसते-हॅसते लोट गयी। चन्द्रा ने सजल नेत्र होकर कहा-अब तो बहुत हॅस चुकीं। लाऊं
कागज ?
सेवती-नहीं, नहीं, अभी तनिक हॅस लेने दो।
सेवती हॅस रही थी कि बाबू कमलाचरण का बाहर
से शुभागमन हुआ, पन्द्रह सोलह
वर्ष की आयु थी। गोरा-गोरा गेहुंआ रंग। छरहरा शरीर, हॅसमुख, भड़कीले वस्त्रों से शरीर को अलंकृत किये, इत्र में बसे, नेत्रो में सुरमा, अधर पर मुस्कान
और हाथ में बुलबुल लिये आकर चारपाई पर बैठ
गये। सेवती बोली’-कमलू। मुंह मीठा
कराओं, तो तुम्हें ऐसे
शुभ समाचार सुनायें कि सुनते ही फड़क उठो।
कमला-मुंह तो तुम्हारा आज
अवश्य ही मीठा होगा। चाहे शुभ समाचार सुनाओं, चाहे न सुनाओं। आज इस पठे ने यह विजय प्राप्त की है कि लोग
दंग रह गये।
यह कहकर कमलाचरण ने बुलबुल को अंगूठे पर
बिठा लिया।
सेवती-मेरी खबर सुनते ही नाचने लगोगे।
कमला-तो अच्छा है कि आप न सुनाइए। मैं तो आज
यों ही नाच रहा हूं। इस पठे ने आज नाक रख ली। सारा नगर दंग रह गया। नवाब मुन्नेखां
बहुत दिनों से मेरी आंखों में चढ़े हुए थे। एक पास होता है, मैं उधर से निकला, तो आप कहने
लगे-मियॉ, कोई पठा तैयार हो
तो लाओं, दो-दो चौंच हो
जायें। यह कहकर आपने अपना पुराना बुलबुल दिखाया। मैने कहा- कृपानिधान। अभी तो
नहीं। परन्तु एक मास में यदि ईश्वर चाहेगा तो आपसे अवश्य एक जोड़ होगी, और बद-बद कर आज।
आगा शेरअली के अखाड़े में बदान ही ठहरी। पचाय-पचास रूपये की बाजी थी। लाखों मनुष्य
जमा थे। उनका पुराना बुलबुल, विश्वास मानों सेवती, कबूतर के बराबर था। परन्तु वह भी केवल फूला हुआ न था। सारे
नगर के बुलबुलो को पराजित किये बैठा था। बलपूवर्क लात चलायी। इसने बार-बार नचाया
और फिर झपटकर उसकी चोटी दबायी। उसने फिर चोट की। यह नीचे आया। चतुर्दिक कोलाहल मच
गया- मार लिया मार लिया। तब तो मुझे भी क्रोध आया डपटकर जो ललकारता हूं तो यह ऊपर
और वह नीचे दबा हआ है। फिर तो उसने कितना ही सिर पटका कि ऊपर आ जाए, परन्तु इस शेयर
ने ऐसा दाबा कि सिर न उठाने दिया। नबाब साहब स्वयं उपस्थित थे। बहुत चिल्लाये, पर क्या हो सकता
है ? इसने उसे ऐसा
दबोचा था जैसे बाज चिडिया को। आखिर बगटुट भागा। इसने पानी के उस पार तक पीछा किया, पर न पा सका। लोग
विस्मय से दंग हो गये। नवाब साहब का तो मुख मलिन हो गया। हवाइयॉ उडने लगीं। रूपये
हारने की तो उन्हें कुछ चिंन्ता नहीं, क्योंकि लाखों की आय है। परन्तु नगर में जो उनकी धाक जमी
हुई थी, वह जाती रही।
रोते हुए घर को सिधारे। सुनता हूं, यहां से जाते ही उन्होंने अपने बुलबुल को जीवित ही गाड़
दिया। यह कहकर कमलाचरण ने जेब खनखनायी।
सेवती-तो फिर खड़े क्या कर रहे हो ? आगरे वाले की
दुकान पर आदमी भेजो।
कमला-तुम्हारे लिए क्या
लाऊं, भाभी ?
सेवती-दूध के कुल्हड़।
कमला-और भैया के लिए ?
सेवती-दो-दो लुगइयॉ।
यह कहकर दोनों ठहका मारकर हॅसने लगे।
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