बाबू चैतन्यादास ने
अर्थशास्त्र खूब पढ़ा था,
और केवल पढ़ा ही
नहीं था, उसका
यथायोग्य व्याहार भी वे करते थे। वे वकील
थे, दो-तीन गांवो मे
उनक जमींदारी भी थी, बैंक में भी कुछ
रुपये थे। यह सब उसी अर्थशास्त्र के ज्ञान का फल था। जब कोई खर्च सामने आता तब
उनके मन में स्वाभावत: प्रश्न होता था-इससे स्वयं मेरा उपकार होगा या किसी अन्य
पुरुष का? यदि दो में से
किसी का कुछ भी उपहार न होता तो वे बड़ी निर्दयता से उस खर्च का गला दबा देते थे। ‘व्यर्थ’ को वे विष के
समाने समझते थे। अर्थशास्त्र के सिद्धन्त उनके जीवन-स्तम्भ हो गये थे।
बाबू साहब के दो पुत्र
थे। बड़े का नाम प्रभुदास था, छोटे का शिवदास। दोनों कालेज में पढ़ते थे। उनमें केवल एक
श्रेणी का अन्तर था। दोनो ही चुतर, होनहार युवक थे। किन्तु प्रभुदास पर पिता का स्नेह अधिक था।
उसमें सदुत्साह की मात्रा अधिक थी और पिता को उसकी जात से बड़ी-बड़ी आशाएं थीं। वे
उसे विद्योन्नति के लिए इंग्लैण्ड भेजना चाहते थे। उसे बैरिस्टर बनाना उनके जीवन
की सबसे बड़ी अभिलाषा थी।
2
किन्तु कुछ ऐसा संयोग हुआ
कि प्रभादास को बी०ए० की परीक्षा के बाद
ज्वर आने लगा। डाक्टरों की दवा होने लगी। एक मास तक नित्य डाक्टर साहब आते रहे, पर ज्वर में कमी
न हुई दूसरे डाक्टर का इलाज होने लगा। पर उससे भी कुछ लाभ न हुआ। प्रभुदास दिनों दिन क्षीण होता चला जाता था।
उठने-बैठने की शक्ति न थी यहां तक कि
परीक्षा में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने का शुभ-सम्बाद सुनकर भी उसक
चेहरे पर हर्ष का कोई चिन्हृ न दिखाई
दिया । वह सदैव गहरी चिन्जा
में डुबा रहाता था । उसे अपना जीवन
बोझ सा जान पडने लगा था । एक रोज चैतन्यादास ने
डाक्टर साहब से पूछा यह क्या बात है कि दो महीने हो गये और अभी तक दवा कोई असर नहीं
हुआ ?
डाक्टर साहब ने सन्देहजनक उत्तर दिया- मैं आपको संशय में नही डालना चाहता । मेरा अनुमान है कि यह
टयुबरक्युलासिस है ।
चैतन्यादास ने व्यग्र होकर कहा – तपेदिक ?
डाक्टर - जी
हां उसके सभी लक्षण दिखायी देते है।
चैतन्यदास ने अविश्वास
के भाव से कहा मानों उन्हे विस्मयकारी बात सुन पड़ी हो –तपेदिक हो गया !
डाक्टर ने खेद प्रकट
करते हुए कहा- यह रोग बहुत ही
गुप्तरीति से शरीर में प्रवशे करता
है।
चैतन्यदास – मेरे खानदान में
तो यह रोग किसी को न था।
डाक्टर – सम्भव है, मित्रों से इसके जर्म
(कीटाणु ) मिले हो।
चैतन्यदास कई मिनट
तक सोचने के बाद बोले- अब क्या
करना चाहिए ।
डाक्टर -दवा करते रहिये ।
अभी फेफड़ो तक असर नहीं हुआ है इनके अच्छे
होने की आशा है ।
चैतन्यदास – आपके विचार में कब
तक दवा का असर होगा?
डाक्टर – निश्चय पूर्वक
नहीं कह सकता । लेकिन तीन चार महीने में वे
स्वस्थ हो जायेगे । जाड़ो में इसरोग का
जोर कम हो जाया करता है ।
चैतन्यदास – अच्छे हो जाने पर
ये पढने में परिश्रम कर सकेंगे ?
डाक्टर – मानसिक
परिश्रम के योग्य तो ये शायद ही हो सकें।
चैतन्यदास – किसी सेनेटोरियम
(पहाड़ी स्वास्थयालय) में भेज दूँ तो कैसा हो?
डाक्टर - बहुत ही उत्तम ।
चैतन्यदास तब ये
पूर्णरीति से स्वस्थ हो जाएंगे?
डाक्टर - हो सकते है, लेकिन इस रोग को
दबा रखने के लिए इनका मानसिक परिश्रम से
बचना ही अच्छा है।
चैतन्यदास नैराश्य भाव से
बोले – तब तो इनका जीवन
ही नष्ट हो गया।
गर्मी बीत गयी। बरसात के
दिन आये, प्रभुदास की दशा
दिनो दिन बिगड़ती गई। वह पड़े-पड़े बहुधा इस रोग पर की गई बड़े बड़े डाक्टरों की
व्याख्याएं पढा करता था। उनके अनुभवो से
अपनी अवस्था की तुलना किया करता था। पहले कुछ दिनो तक तो वह अस्थिरचित –सा हो गया था। दो चार दिन भी दशा संभली रहती तो
पुस्तके देखने लगता और विलायत यात्रा की
चर्चा करता । दो चार दिन भीज्वर का प्रकोप
बढ जाता तो जीवन से निराश
हो जाता । किन्तु कई मास के पश्चात जब
उसे विश्वास हो गया कि इस रोग से
मुक्त होना कठिन है तब उसने जीवन की भी
चिन्ता छोड़ दी पथ्यापथ्य का विचार न करता , घरवालो की निगाह बचाकर औषधियां जमीन पर गिरा देता मित्रों के साथ बैठकर जी बहलाता। यदि कोई उससे स्वास्थ्य के विषय में कुछ
पूछता तो चिढकर मुंह मोड लेता । उसके भावों में एक शान्तिमय
उदासीनता आ गई थी, और बातो में एक दार्शनिक मर्मज्ञता पाई जाती थी
। वह लोक रीति और सामाजिक प्रथाओं पर बड़ी
निर्भीकता से आलोचनारंए किया करता । यद्यपि
बाबू चैतन्यदास के मन में रह –रहकर शंका उठा करती थी कि जब परिणाम विदित ही है तब इस प्रकार धन का अपव्यय
करने से क्या लाभ तथापि वेकुछ तो पुत्र-प्रेम और कुछ लोक मत के भय से धैर्य के
साथ् दवा दर्पन करतेक जाते थें ।
जाड़े का मौसम था।
चैतन्यदास पुत्र के सिरहाने बैठे हुए डाक्टर साहब की ओर प्रश्नात्मक दृष्टि से देख
रहे थे। जब डाक्टर साहब टेम्परचर लेकर
(थर्मामीटर लगाकर ) कुर्सी पर बैठे तब चैतन्यदास ने पूछा- अब तो जाड़ा आ गया। आपको
कुछ अन्तर मालूम होता है ?
डाक्टर – बिलकुल नहीं , बल्कि रोग और भी दुस्साध्य होता जाता है।
चैतन्यदास ने कठोर स्वर
में पूछा – तब आप लोग क्यो मुझे इस भ्रम में डाले हुए थे किजाडे में अच्छे हो जायेगें ? इस प्रकार दूसरो
की सरलता का उपयोग करना अपना मतलब साधने
का साधन हो तो हो इसे सज्जनताकदापि नहीं
कह सकते।
डाक्टर ने नम्रता से कहा-
ऐसी दशाओं में हम केवल अनुमान कर सकते है।
और अनुमान सदैव सत्य नही होते। आपको जेरबारी अवश्य हुई पर मैं आपको विश्वास दिलाता
हूं कि मेरी इच्छा आपको भ्रम में डालने के
नहीं थी ।
शिवादास बड़े दिन की छुटिटयों में आया हुआ था , इसी समय वहि कमरे
में आ गया और डाक्टर साहब से बोला – आप पिता जी की
कठिनाइयों का स्वयं अनुमान कर सकते हैं । अगर उनकी बात
नागवार लगी तो उन्हे क्षमा कीजिएगा ।
चैतन्यदास ने छोटे पुत्र की ओर वात्सल्य की दृष्टि से
देखकर कहा-तुम्हें यहां आने की जरुरत थी?
मै तुमसे कितनी बार कह चुका हूँ कि यहॉँआया करो । लेकिन
तुमको सबर ही नही होता ।
शिवादास ने लज्जित होकर
कहा- मै अभी चला जाता हूँ। आप नाराज न हों । मै केवल डाक्टर साहब से यह पूछना चाहताथा कि भाई साहब के लिए
अब क्या करना चाहिए ।
डाक्टर साहब ने कहा- अब
केवल एकही साधनऔर है इन्हे इटली के किसी सेनेटारियम मे भेज देना चाहिये ।
जचैतन्यदास ने सजग होकर
पूछा- कितना खर्च होगा? ‘ज्यादा स ज्यादा
तीन हजार । साल भसा रहना होगा?
निश्चय है कि वहां से
अच्छे होकर आवेगें ।
जी नहीं यहातो यह भयंकर
रोग है साधारण बीमारीयो में भी कोई बात
निश्चय रुप से नही कही जा सकती ।‘
इतना खर्च करनेपर भी वहां सेज्यो के त्यो लौटा आये तो?
तो ईश्वार कीइच्छा। आपको
यह तसकीन हो जाएगी कि इनके लिए मै जो कुछ कर सकता था। कर दिया ।
3
आधी रात तक घर में
प्रभुदास को इटली भेजने के प्रस्तवा पर
वाद-विवाद होता रहा । चैतन्यदास का कथन था कि एक संदिग्य फल केलिए तीन हजार का खर्च उठाना बुद्धिमत्ता के प्रतिकूल है। शिवादास फल उनसे सहमत था । किन्तु उसकी माता
इस प्रस्ताव का बड़ी ढृझ्ता के साथ
विरोध कर रही थी । अतं में
माता की धिक्कारों का यह फल हुआ कि
शिवादास लज्जित होकर उसके पक्ष में
हो गया बाबू साहब अकेले रह गये । तपेश्वरी ने तर्क से कामलिया । पति केसदभावो को
प्रज्वलित करेन की चेष्टा की ।धन की
नश्वरात कीलोकोक्तियां कहीं इनं शस्त्रों
से विजय लाभ न हुआ तो अश्रु बर्षा करने लगी । बाबू साहब जल –बिन्दुओ क इस शर
प्रहार के सामने न ठहर सके । इन शब्दों
में हार स्वीकार की- अच्छा भाई
रोओं मत। जो कुछ कहती हो वही होगा।
तपेश्वरी –तो कब ?
‘रुपये हाथ में आने दो ।’
‘तो यह क्यों नही कहते किभेजना ही नहीं चाहते?’
भेजना चाहता हूँ किन्तु
अभी हाथ खाली हैं। क्या तुम नहीं जानतीं?’
‘बैक में तो रुपये है? जायदाद तो है? दो-तीन हजार का
प्रबन्ध करना ऐसा क्या कठिन है?’
चैतन्यदास ने पत्नी को ऐसी दृष्टि से देखा मानो
उसे खाजायेगें और एक क्षण केबाद बोले – बिलकूल बच्चों कीसी बाते करतीहो। इटली में कोई संजीवनी नही रक्खी हुई है जो तुरन्त
चमत्कार दिखायेगी । जब वहां भी केवल प्रारबध ही की परीक्षा करनी है तो सावधानी
से कर लेगें । पूर्व पूरुषो की संचित जायदाद और
रक्खहुए रुपये मैं अनिश्चित हित की आशा पर बलिदान नहीं कर सकता।
तपेश्वरी ने डरते – डरते कहा- आखिर , आधा हिस्सा तो प्रभुदास का भी है?
बाबू साहब तिरस्कार करते
हुए बोले – आधा नही, उसमें मै अपना
सर्वस्व दे देता, जब उससे कुछ आशा
होती , वह खानदान की
मर्यादा मै और ऐश्वर्य बढाता और इस लगाये।
हुए लगाये हुए धन केफलस्वरुप कुछ कर दिखाता । मै केवल भावुकता के फेर में पड़कर धन का ह्रास नहीं कर सकता ।
तपेश्वीर अवाक रह गयी।
जीतकर भी उसकी हार हुई ।
इस प्रस्ताव केछ: महीने
बाद शिवदास बी.ए पास होगया। बाबू चैतत्यदास नेअपनी जमींदरी केदो आने बन्धक रखकर
कानून पढने के निमित्त उसे इंग्लैड भेजा
।उसे बम्बई तक खुद पहुँचाने गये । वहां से
लौटेतो उनके अतं: करण में सदिच्छायों से परिमित लाभ होने की आशा थी उनके लौटने केएक सप्ताह पीछे अभागा प्रभुदास अपनी उच्च अभिलाषओं को लिये हुए
परलोक सिधारा ।
4
चैतन्यदास मणिकर्णिका घाट
पर अपने सम्बन्धियों केसाथ बैठे चिता – ज्वाला की
ओर देख रहे थे ।उनके नेत्रों से अश्रुधारा प्रवाहित हो रही
थी । पुत्र –प्रेम एक क्षण
के लिए अर्थ –सिद्धांत पर
गालिब हो गयाथा। उस विरक्तावस्था में
उनके मन
मे यह कल्पना उठ रही थी । - सम्भव है, इटली जाकर
प्रभुदास स्वस्थ हो जाता । हाय! मैने तीन
हजार का
मुंह देखा और पुत्र रत्न को हाथ
से खो दिया। यह कल्पना प्रतिक्षण सजग होती
थी और उनको ग्लानि,
शोक और पश्चात्ताप के बाणो से बेध रही थी । रह रहकर
उनके हृदय में बेदना कीशुल सी उठती थी । उनके अन्तर की ज्वाला उस चिता –ज्वाला से कम दग्धकारिणी न थी। अक्स्मात उनके कानों में
शहनाइयों की आवाज आयी। उन्होने आंख ऊपर
उठाई तो मनुष्यों का एक समूह एक अर्थी के साथ आता हुआ दिखाई
दिया। वे सब के सब ढोल बजाते, गाते, पुष्य आदि की
वर्षा करते चले आते थे । घाट पर पहुँचकर उन्होने अर्थी उतारी और चिता बनाने
लगे । उनमें से एक युवक आकर चैतन्यदास के पास खड़ा हो गया। बाबू साहब ने पूछा –किस मुहल्ले में रहते हो?
युवक ने जवाब दिया- हमारा
घर देहात में है । कल शाम
को चले थे । ये हमारे बाप थे । हम लोग
यहां कम आते है, पर दादा की
अन्तिम इच्छा थी कि हमें मणिकर्णिका
घाट पर ले जाना ।
चैतन्यदास -येसब आदमी तुम्हारे साथ है?
युवक -हॉँ और लोग पीछे
आते है । कई सौ आदमी साथ आये है। यहां तक आने में सैकड़ो उठ गयेपर सोचता हूँ किबूढे पिता की मुक्ति तो बन गई । धन और ही किसलिए ।
चैतन्यदास- उन्हें क्या
बीमारी थी ?
युवक ने बड़ी सरलता से
कहा , मानो वह अपने
किसी निजी सम्बन्धी से बात कर रहा
हो।- बीमार का किसी को कुछ पता नहीं चला। हरदम ज्वर चढा रहता था। सूखकर कांटा हो गये थे । चित्रकूट हरिद्वार प्रयाग सभी स्थानों में ले लेकर घूमे । वैद्यो ने जो कुछ
कहा उसमे कोई कसर नही की।
इतने में युवक का एक और साथी
आ गया। और बोला –साहब , मुंह देखा बात
नहीं, नारायण लड़का दे
तो ऐसा दे । इसने रुपयों को ठीकरे समझा ।घर की सारी पूंजी पिता की दवा
दारु में स्वाहा कर दी । थोड़ी सी जमीन तक
बेच दी पर काल बली के सामने आदमी का
क्या बस है।
युवक ने गदगद स्वर से कहा – भैया, रुपया पैसा हाथ का मैल है। कहां आता है कहां जाता है,
मुनष्य नहीं मिलता। जिन्दगानी है तो कमा खाउंगा। पर मन में
यह लालसा तो नही रह गयी कि हाय! यह नही
किया, उस वैद्य के पास
नही गया नही तो शायद बच जाते। हम तो कहते है कि
कोई हमारा सारा घर द्वार लिखा ले केवल दादा को एक बोल बुला दे ।इसी माया –मोह का नाम
जिन्दगानी हैं , नहीं तो इसमे क्या
रक्खा है? धन से
प्यारी जान जान से प्यारा ईमान । बाबू साहब
आपसे सच कहता हूँ अगर दादा के लिए अपने बस की कोई बात
उठा रखता तो आज रोते न बनता । अपना ही चित्त अपने को धिक्कारता । नहीं तो मुझे इस घड़ी ऐसा जान पड़ता
है कि मेरा उद्धार एक भारी ऋण से हो गया। उनकी आत्मा सुख और शान्ति
से रहेगीतो मेरा सब तरह कल्याण ही होगा।
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