सारे नगर में महाशय
यशोदानन्द का बखान हो रहा था। नगर ही में नही, समस्त प्रान्त में उनकी कीर्ति की जाती थी, समाचार पत्रों
में टिप्पणियां हो रही थी,
मित्रो से
प्रशंसापूर्ण पत्रों का तांता लगा हुआ था। समाज-सेवा इसको कहते है ! उन्नत विचार
के लोग ऐसा ही करते है। महाशय जी ने शिक्षित समुदाय का मुख उज्जवल कर दिया। अब कौन
यह कहने का साहस कर सकता है कि हमारे नेता केवल बात के धनी है, काम के धनी नही
है ! महाशय जी चाहते तो अपने पुत्र के लिए उन्हें कम से कम बीज हज़ार रूपये दहेज
में मिलते, उस पर खुशामद
घाते में ! मगर लाला साहब ने सिद्वांत के सामने धन की रत्ती बराबर परवा न की और
अपने पुत्र का विवाह बिना एक पाई दहेज लिए स्वीकार किया। वाह ! वाह ! हिम्मत हो तो
ऐसी हो, सिद्वांत प्रेम
हो तो ऐसा हो, आदर्श-पालन हो तो
ऐसा हो । वाह रे सच्चे वीर,
अपनी माता के
सच्चे सपूत, तूने वह कर
दिखाया जो कभी किसी ने किया था। हम बडे गर्व से तेरे सामने मस्तक नवाते है।
महाशय यशोदानन्द के दो
पुत्र थे। बडा लडका पढ लिख कर फाजिल हो चुका था। उसी का विवाह तय हो रहा था और हम
देख चुके है, बिना कुछ दहेज
लिये।
आज का तिलक था।
शाहजहांपुर स्वामीदयाल तिलक ले कर आने वाले थे। शहर के गणमान्य सज्जनों को
निमन्त्रण दे दिये गये थे। वे लोग जमा हो गये थे। महफिल सजी हुई थी। एक प्रवीण
सितारिया अपना कौशल दिखाकर लोगो को मुग्ध कर रहा था। दावत को सामान भी तैयार था ? मित्रगण
यशोदानन्द को बधाईयां दे रहे थे।
एक महाशय बोले—तुमने तो कमाल कर
दिया !
दूसरे—कमाल ! यह कहिए
कि झण्डे गाड दिये। अब तक जिसे देखा मंच
पर व्याख्यान झाडते ही देखा। जब काम करने का अवसर आता था तो लोग दुम लगा लेते थे।
तीसरे—कैसे-कैसे बहाने
गढे जाते है—साहब हमें तो
दहेज से सख्त नफरत है यह मेरे सिद्वांत के विरुद्व है, पर क्या करुं
क्या, बच्चे की
अम्मीजान नहीं मानती। कोई अपने बाप पर फेंकता है, कोई और किसी खर्राट पर।
चौथे—अजी, कितने तो ऐसे
बेहया है जो साफ-साफ कह देते है कि हमने लडके को शिक्षा – दीक्षा में जितना
खर्च किया है, वह हमें मिलना
चाहिए। मानो उन्होने यह रूपये उन्होन किसी बैंक में जमा किये थे।
पांचवें—खूब समझ रहा हूं, आप लोग मुझ पर
छींटे उडा रहे है।
इसमें लडके वालों का ही
सारा दोष है या लडकी वालों का भी कुछ है।
पहले—लडकी वालों का
क्या दोष है सिवा इसके कि वह लडकी का बाप है।
दूसरे—सारा दोष ईश्वर
का जिसने लडकियां पैदा कीं । क्यों ?
पांचवे—मैं यह नही कहता।
न सारा दोष लडकी वालों का हैं, न सारा दोष लडके वालों का। दोनों की दोषी है। अगर लडकी वाला
कुछ न दे तो उसे यह शिकायत करने का कोई अधिकार नही है कि डाल क्यों नही लायें, सुंदर जोडे क्यों
नही लाये, बाजे-गाजे पर
धूमधाम के साथ क्यों नही आये ? बताइए !
चौथे—हां, आपका यह प्रश्न
गौर करने लायक है। मेरी समझ में तो ऐसी
दशा में लडकें के पिता से यह शिकायत न होनी चाहिए।
पांचवें---तो यों कहिए कि
दहेज की प्रथा के साथ ही डाल, गहनें और जोडो की प्रथा भी त्याज्य है। केवल दहेज को मिटाने
का प्रयत्न करना व्यर्थ है।
यशोदानन्द----यह भी Lame excuse1 है। मैंने दहेज
नही लिया है।, लेकिन क्या
डाल-गहने ने ले जाऊंगा।
पहले---महाशय आपकी बात
निराली है। आप अपनी गिनती हम दुनियां वालों के साथ क्यों करते हैं ? आपका स्थान तो
देवताओं के साथ है।
दूसरा----20 हजार की रकम छोड
दी ? क्या बात है।
______________________
१------थोथी दलील
यशोदानन्द---मेरा तो यह
निश्चय है कि हमें सदैव principles
1 पर स्थिर रहना चाहिए। principal 2 के सामने money3 की कोई
value4 नही है। दहेज की कुप्रथा पर मैंने खुद कोई
व्याख्यान नही दिया, शायद कोई नोट तक
नही लिखा। हां,
conference5 में इस प्रस्ताव
को second6 कर चुका हूं। मैं उसे तोडना भी चाहूं तो आत्मा
न तोडने देगी। मैं सत्य कहता हूं, यह रूपये लूं तो मुझे इतनी मानसिक वेदना होगी कि शायद मैं
इस आघात स बच ही न सकूं।
पांचवें---- अब की conference आपको सभापति न बनाये तो उसका घोर अन्याय है।
यशोदानन्द—मैंने अपनी duty 7 कर दीउसका recognition8 हो या
न हो, मुझे इसकी परवाह
नही।
इतने में खबर हुई कि
महाशय स्वामीदयाल आ पंहुचे । लोग उनका अभिवादन करने को तैयार हुए, उन्हें मसनद पर
ला बिठाया और तिलक का संस्कार आरंम्भ हो गया। स्वामीदयाल ने एक ढाक के पत्तल पर
नारियल, सुपारी, चावल पान आदि
वस्तुएं वर के सामने रखीं। ब्राहृम्णों ने मंत्र पढें हवन हुआ और वर के माथे पर
तिलक लगा दिया गया। तुरन्त घर की स्त्रियो ने मंगलाचरण गाना शुरू किया। यहां महफिल
में महाशय यशोदानन्द ने एक चौकी पर खडे होकर दहेज की कुप्रथा पर व्याख्यान देना शुरू किया। व्याख्यान पहले से लिखकर तैयार
कर लिया गया था। उन्होनें दहेज की ऐतिहासिक व्याख्या की थी।
पूर्वकाल में दहेज का नाम
भी न थ। महाशयों ! कोई जानता ही न था कि दहेज या ठहरोनी किस चिडिया का नाम है।
सत्य मानिए, कोई जानता ही न
था कि ठहरौनी है क्या चीज,
पशु या पक्षी, आसमान में या
जमीन में, खाने में या पीने
में । बादशाही जमाने में इस प्रथा की बुंनियाद पडी। हमारे युवक सेनाओं में सम्मिलित होने लगे । यह
वीर लोग थें, सेनाओं में जाना
गर्व समझते थे। माताएं अपने दुलारों को अपने हाथ से शस्त्रों से सजा कर रणक्षेत्र
भेजती थीं। इस भॉँति युवकों की संख्या कम होने लगी और लडकों का मोल-तोल शुरू हुआ।
आज यह नौवत आ गयी है कि मेरी इस तुच्छ –महातुच्छ सेवा पर पत्रों में टिप्पणियां हो रही है मानों
मैंने कोई असाधारण काम किया है। मै कहता हूं ; अगर आप संसार में जीवित रहना चाहते हो तो इस प्रथा क तुरन्त
अन्त कीजिए।
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१----सिद्वांतों ।
२----सिद्वांत 3-----धन । 4-----मूल्य ।
5--- सभा । 6---अनुमोदन । ७
कर्तव्य । ८----कदर ।
एक महाशय ने शंका
की----क्या इसका अंत किये बिना हम सब मर जायेगें ?
यशोदानन्द-अगर ऐसा होता
है तो क्या पूछना था, लोगो को दंड मिल
जाता और वास्तव में ऐसा होना चाहिए। यह ईश्वर का अत्याचार है कि ऐसे लोभी, धन पर गिरने वाले, बुर्दा-फरोश, अपनी संतान का
विक्रय करने वाले नराधम जीवित है। और समाज उनका तिरस्कार नही करता । मगर वह सब
बुर्द-फरोश है------इत्यादि।
व्याख्यान बहुंतद लम्बा
ओर हास्य भरा हुआ था। लोगों ने खूब वाह-वाह की । अपना वक्तव्य समाप्त करने के बाद
उन्होने अपने छोटे लडके परमानन्द को, जिसकी अवस्था ७ वर्ष की थी, मंच पर खडा किया। उसे उन्होनें एक छोटा-सा
व्याख्यान लिखकर दे रखा था। दिखाना चाहते थे कि
इस कुल के छोटे बालक भी कितने कुशाग्र बुद्वि है। सभा समाजों में बालकों से
व्याख्यान दिलाने की प्रथा है ही, किसी को कुतूहल न हुआ।बालक बडा सुन्दर, होनहार, हंसमुख था।
मुस्कराता हुआ मंच पर आया और एक जेब से कागज निकाल कर बडे गर्व के साथ उच्च स्वर
में पढने लगा------
प्रिय बंधुवर,
नमस्कार !
आपके पत्र से विदित होता
है कि आपको मुझ पर विश्वास नही है। मैं ईश्वर को साक्षी करके धन आपकी सेवा में
इतनी गुप्त रीति से पहुंचेगा कि किसी को लेशमात्र भी सन्देह न होगा । हां केवल एक
जिज्ञासा करने की धृष्टता करता हूं। इस व्यापार को गुप्त रखने से आपको जो सम्मान
और प्रतिष्ठा – लाभ होगा और मेरे
निकटवर्ती में मेरी जो निंदा की जाएगी, उसके उपलक्ष्य में मेरे साथ क्या रिआयत होगी ? मेरा विनीत
अनुरोध है कि २५ में से ५ निकालकर मेरे साथ न्याय किया जाय...........।
महाशय श्योदानन्द घर में
मेहमानों के लिए भोजन परसने का आदेश करने गये थे। निकले तो यह बाक्य उनके कानों
में पडा—२५ में से ५ मेरे
साथ न्याय किया कीजिए ।‘ चेहरा फक हो गया, झपट कर लडके के
पास गये, कागज उसके हाथ
से छीन लिया और बौले--- नालायक, यह क्या पढ रहा
है, यह तो किसी
मुवक्किल का खत है जो उसने अपने मुकदमें के बारें में लिखा था। यह तू कहां से उठा
लाया, शैतान जा वह कागज
ला, जो तुझे लिखकर
दिया गया था।
एक महाशय-----पढने दीजिए, इस तहरीर में जो
लुत्फ है, वह किसी दूसरी
तकरीर में न होगा।
दूसरे---जादू वह जो सिर
चढ के बोलें !
तीसरे—अब जलसा बरखास्त
कीजिए । मैं तो चला।
चौथै—यहां भी चलतु
हुए।
यशोदानन्द—बैठिए-बैठिए, पत्तल लगाये जा
रहे है।
पहले—बेटा परमानन्द, जरा यहां तो आना, तुमने यह कागज
कहां पाया ?
परमानन्द---बाबू जी ही तो
लिखकर अपने मेज के अन्दर रख दिया था। मुझसे कहा था कि इसे पढना। अब नाहक मुझसे खफा
रहे है।
यशोदानन्द---- वह यह कागज
था कि सुअर ! मैंने तो मेज के ऊपर ही रख दिया था। तूने ड्राअर में से क्यों यह
कागज निकाला ?
परमानन्द---मुझे मेज पर
नही मिला ।
यशोदान्नद---तो मुझसे
क्यों नही कहा, ड्राअर क्यों
खोला ? देखो, आज ऐसी खबर लेता
हूं कि तुम भी याद करोगे।
पहले यह आकाशवाणी है।
दूसरे----इस को लीडरी
कहते है कि अपना उल्लू सीधा करो और नेकनाम भी बनो।
तीसरे----शरम आनी चाहिए।
यह त्याग से मिलता है, धोखेधडी से नही।
चौथे---मिल तो गया था पर
एक आंच की कसर रह गयी।
पांचवे---ईश्वर
पांखंडियों को यों ही दण्ड देता है
यह कहते हुए लोग उठ खडे
हुए। यशोदानन्द समझ गये कि भंडा फूट गया, अब रंग न जमेगा। बार-बार परमानन्द को कुपित नेत्रों से
देखते थे और डंडा तौलकर रह जाते थे। इस शैतान ने आज जीती-जिताई बाजी खो दी, मुंह में कालिख
लग गयी, सिर नीचा हो गया।
गोली मार देने का काम किया है।
उधर रास्ते में
मित्र-वर्ग यों टिप्पणियां करते जा रहे थे-------
एक ईश्वर ने मुंह में
कैसी कालिमा लगायी कि हयादार होगा तो अब सूरत न दिखाएगा।
दूसरा--ऐसे-ऐसे धनी, मानी, विद्वान लोग ऐसे
पतित हो सकते है। मुझे यही आश्चर्य है। लेना है तो खुले खजाने लो, कौन तुम्हारा हाथ
पकडता है; यह क्या कि माल
चुपके-चुपके उडाओं और यश भी कमाओं !
तीसरा--मक्कार का मुंह
काला !
चौथा—यशोदानन्द पर दया
आ रही है। बेचारी ने इतनी धूर्तता की, उस पर भी कलई खुल ही गयी। बस एक आंच की कसर रह गई।
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